“Waqt ki dhool mein kuch kahaniyan chhup jaati hain…
Jaise वो बटवारा नहीं, बाँटने का दौर था —
जहाँ कुएं पे सबका हक था, और अनाज की बोरी अकेली नहीं सोती थी।”
चलो ज़रा आँखें बंद करो। Imagine ek छोटा सा गाँव— मिट्टी की पगडंडियाँ, सरसों के खेतों में नाचती हवा, और गाँव के बीचोंबीच ek बरगद का पेड़। उसके नीचे बैठा है एक बुज़ुर्ग, हाथ में लाठी, आँखों में सौ साल की कहानियाँ। वो कहता है — “बेटा, उस ज़माने में कोई भूखा नहीं सोता था, क्योंकि सब कुछ साझा था… पानी, खाना, ज़मीन… और सपने भी।”
यही तो थे हमारे traditional resource sharing systems — भारत की एक ऐसी संस्कृति, जहाँ ‘मेरा’ से पहले ‘हमारा’ आता था।
इतिहास की परतें: संसाधनों का बँटवारा, भारत का प्राचीन उसूल
Resource sharing — यानी संसाधनों का सामूहिक उपयोग — कोई नया कॉन्सेप्ट नहीं है। ये तो हमारे समाज की जड़ों में है, उतना ही पुराना जितना कि ऋग्वेद।
कब शुरू हुआ?
● भारत में ग्राम व्यवस्था (village republics) Rigvedic काल से चली आ रही है, जहाँ समाज इकठ्ठा काम करता था और संसाधन भी बाँटता था।
● सिंधु घाटी सभ्यता (c. 3300–1300 BCE) में भी सार्वजनिक कुएं, स्नानघर और granaries (अन्न भंडारण भवन) पाये गए। ये सब मिल-जुलकर उपयोग करने के प्रतीक थे।
● बौद्ध संघों और गुरुकुलों में वस्त्र, अन्न, ज्ञान — सब कुछ साझा किया जाता था।
क्यों ज़रूरी था?
क्योंकि भारत की आत्मा हमेशा सामूहिकता (collectivism) में बसी रही। Individual wealth से ज़्यादा अहम था सामूहिक कल्याण (lok kalyan)।
यहाँ “धन” केवल मुद्रा नहीं था — ज्ञान, जल, भूमि, अनाज, श्रम — सब ‘धन’ था। और ये धरोहर होती थी, ना कि निजी संपत्ति।
ज़मीनी सच: जब साझा करना ही जीने का तरीका था
“Ma Rukmini ne aaj naye kapde pehne, kyunki mandir mein utsav tha. Par kapde usne mohalle ki Sita chachi se उधार लिए थे – jaise हर साल लेती थी…”
ऐसे ही चलता था ज़िंदगी का चक्र — बिना शर्म, बिना स्वार्थ, बिना सौदेबाज़ी के।
किसान और खेत
● एक ज़माने में “हल-बैठक” प्रथा होती थी, जहाँ गाँव के सारे किसान एक-दूसरे की फ़सल में बारी-बारी से मदद करते थे। कोई पैसे नहीं, सिर्फ श्रमदान।
● “पानी पंचायतें” महाराष्ट्र और गुजरात में प्रचलित थीं — गाँव के कुंए और तालाबों का उपयोग तय नियमों से होता था। सबसे पहले प्यासा, फिर ज़रूरतमंद।
कारीगर और कला
● राजस्थान में कुम्हार अपने बनाए बर्तन पूरे गाँव में बाँटते, बदले में गेहूँ या कपड़ा मिलता।
● लोक-कला मंडलियाँ, जैसे “पारंपरिक नट” या “कथकथाएं” सुनाने वाले — पूरे समाज की संपत्ति माने जाते थे।
धरोहर की गूंज: आज भी जीवित हैं ये परंपराएं
आज भी अगर ध्यान दो, तो ये साझा संसाधन संस्कृति हमारी जीवनशैली में छिपी हुई है — सिर्फ रूप बदल गया है।
त्योहारों में
● होली हो या दीवाली — पकवान बाँटना, कपड़े उधार देना, साथ मिलकर पूजा करना — ये सब उसी विरासत की छाया है।
सहकारिता आंदोलन (Co-operative Movement)
● Amul Dairy (गुजरात) — एक क्लासिक उदाहरण है सामूहिक संसाधन प्रबंधन का।
● महाराष्ट्र के ग्राम सहकारी बैंक, बिहार की पानी पंचायतें, और हिमाचल की घास-चराई समितियाँ — सब इसी परंपरा की आधुनिक अभिव्यक्ति हैं।
क्या आप जानते हैं? | Fun Facts & Myths
मिथक: “भारतीय समाज हमेशा से जाति आधारित और विभाजित था।”
सच्चाई: गाँवों में संसाधन साझेदारी ने जातीय भेद को कई बार दरकिनार किया। जल, जंगल, ज़मीन के लिए नियम जाति से नहीं, ज़रूरत से तय होते थे।
दिलचस्प तथ्य
● Himalayan Van Panchayats (उत्तराखंड) — 1930s से गांवों द्वारा चलाए जा रहे हैं। आज भी ग्रामीण मिलकर जंगल की देखभाल करते हैं।
दृश्य और भावनाएं: वो हवाओं में साझा होने की ख़ुशबू
सोचो —
गाँव का शाम का वक्त। ढोलक की थाप सुनाई देती है। चूल्हे पर खिचड़ी बन रही है — वो भी मिलजुलकर लाई गई दाल और चावल से। बरगद के नीचे औरतें बुनाई कर रही हैं, और बच्चे खेलते हुए आवाज़ लगा रहे — “मौसी, थोड़ी मूंगफली देना!”
हवा में बस एक बात गूंजती है:
“तेरा-मेरा कुछ नहीं, सबका है ये जीवन।”
अंतिम विचार: क्या खो दिया हमने?
“न द्वेष्टि कस्यचिन्नापि, नोत्सुकः सुखमिच्छतः”
(जो किसी से द्वेष नहीं करता और सुख के लिए लालायित नहीं, वही सच्चा ज्ञानी है) — भगवद्गीता
हमने शायद ‘साझा’ करना modern दुनिया की दौड़ में भूल दिया, लेकिन भारत की आत्मा आज भी उस collective consciousness में बसती है।
शायद समय आ गया है कि हम फिर से याद करें — कि असली दौलत बाँटने में है, बटोरने में नहीं।
अगर आपको ये यात्रा पसंद आई — तो किसी से साझा ज़रूर कीजिए… क्यूँकि sharing ही तो हमारी असली विरासत है।
लेखक: ChatGPT — आपकी लोक-कथाओं की खोज में साथी
Comments mein bataye: क्या आपके गाँव में ऐसी कोई साझी परंपरा अब भी जिंदा है?