एक सितारा, जिसे एक्टिंग का राजकुमार कहा गया
बॉलीवुड के इतिहास में कुछ नाम ऐसे हैं जो सिर्फ सितारे नहीं, बल्कि एक्टिंग की पाठशाला बन गए। उन्हीं में से एक नाम है हरीभाई जरीवाला, जिन्हें दुनिया संजीव कुमार के नाम से जानती है। आज, 9 जुलाई को इस ‘अदाकारी के राजकुमार’ की जयंती है। संजीव कुमार कोई ‘hero’ नहीं थे, वो एक ‘actor’ थे। एक ऐसे एक्टर, जिन्होंने कभी किरदारों की उम्र, लंबाई या glamour की परवाह नहीं की। उन्होंने सिर्फ और सिर्फ अभिनय से मतलब रखा। यही वजह है कि आज भी जब ‘serious acting’ की बात होती है, तो संजीव कुमार का चेहरा आंखों के सामने आ जाता है। वो एक ऐसे कलाकार थे, जिन्होंने अपने चेहरे की हर एक शिकन और आंखों की हर एक हरकत से किरदारों को जिंदा कर दिया। उनकी legacy आज भी बॉलीवुड के लिए एक मील का पत्थर है।
‘शोले’ का वो ठाकुर, जिसके हाथ नहीं थे पर इरादे फौलादी थे
1975 में जब रमेश सिप्पी की ‘शोले’ रिलीज हुई, तो उसने इतिहास रच दिया। इस फिल्म का हर एक किरदार अमर हो गया, लेकिन एक किरदार ऐसा था जिसने बिना हाथ हिलाए, सिर्फ अपनी आंखों और भारी आवाज से पर्दे पर आग लगा दी – वो थे ठाकुर बलदेव सिंह। संजीव कुमार ने ठाकुर के किरदार को इस तरह जिया कि आज भी ‘ये हाथ मुझे दे दे ठाकुर’ वाला डायलॉग गब्बर से ज्यादा ठाकुर की बेबसी और बदले की आग को बयां करता है।
सोचिए, एक ऐसा एक्टर जो फिल्म के बड़े हिस्से में सिर्फ एक शॉल ओढ़े खड़ा रहता है, जिसके एक्शन करने के लिए हाथ नहीं हैं, वो कैसे दर्शकों के दिलों में उतर सकता है? यह संजीव कुमार का ही कमाल था। उन्होंने ठाकुर के दर्द, गुस्से, और मजबूरी को अपने चेहरे के भावों से जीवंत कर दिया। जया बच्चन (Jaya Bachchan) द्वारा निभाया गया ‘राधा’ का किरदार, जो ठाकुर की विधवा बहू थी, उसकी खामोशी और ठाकुर का मौन संवाद, फिल्म के सबसे powerful दृश्यों में से एक है। संजीव कुमार ने यह साबित कर दिया कि एक महान एक्टर को डायलॉग या एक्शन की नहीं, बल्कि किरदार की आत्मा को समझने की जरूरत होती है। ‘शोले’ का ठाकुर सिर्फ एक किरदार नहीं, बल्कि एक्टिंग का एक पूरा ‘masterclass’ है।
Versatility का बादशाह: जब उम्र को दी मात
संजीव कुमार की सबसे बड़ी खासियत उनकी versatility थी। वो जिस किरदार को छू लेते थे, वो सोना बन जाता था। लेकिन उनकी हिम्मत का सबसे बड़ा उदाहरण तब देखने को मिला जब उन्होंने उम्र की सीमाओं को तोड़ दिया। आज के दौर में जहां एक्टर्स अपनी ‘hero image’ को लेकर इतने सजग रहते हैं, वहीं संजीव कुमार ने सिर्फ 40 साल की उम्र में एक ऐसा किरदार निभाया जिसके बारे में सुनकर कोई भी हैरान रह जाए। उन्होंने एक फिल्म में अपने समकालीन (contemporary) सुपरस्टार अमिताभ बच्चन के पिता का रोल अदा किया, जबकि हकीकत में अमिताभ उनसे सिर्फ 4 साल छोटे थे!
यह घटना दिखाती है कि संजीव कुमार के लिए किरदार की अहमियत अपनी इमेज से कहीं ज्यादा थी। वो जानते थे कि एक एक्टर का काम उम्र देखना नहीं, बल्कि कहानी को जीना होता है। यह सिर्फ एक फिल्म का रोल नहीं था, बल्कि बॉलीवुड के ‘ego-centric’ माहौल को एक करारा जवाब था। इसी तरह ‘आंधी’ फिल्म में उनका निभाया जेके का किरदार हो या ‘अंगूर’ में उनकी डबल रोल वाली कॉमेडी, उन्होंने हर रंग में खुद को साबित किया। एक तरफ ‘आंधी’ के संजीदा पति, तो दूसरी तरफ ‘खिलौना’ का मानसिक रूप से बीमार युवक, और ‘अंगूर’ का गुदगुदाता किरदार – इतने रंग एक ही एक्टर में देखना दुर्लभ है। यही वजह है कि उन्हें ‘The Prince of Acting’ का खिताब दिया गया।
एक ‘संजीदा कलाकार’ की अमर विरासत
संजीव कुमार को अक्सर ‘संजीदा कलाकार’ कहा जाता था, और यह बिल्कुल सही था। वो सेट पर आते थे, अपना काम करते थे और चले जाते थे। उन्हें पार्टियों या फिल्मी गॉसिप से कोई मतलब नहीं था। उनका पूरा focus सिर्फ और सिर्फ अपने craft पर होता था। उन्होंने यह साबित किया कि इंडस्ट्री में टिके रहने के लिए आपको ‘गॉडफादर’ या ‘कैंप’ की नहीं, बल्कि बेपनाह टैलेंट की जरूरत होती है।
उनकी अभिनय शैली बहुत ही सहज और स्वाभाविक (natural) थी। वो कभी ‘overacting’ करते नहीं दिखे। चाहे खुशी का सीन हो या गम का, उनके चेहरे पर हर भाव बिल्कुल नपा-तुला होता था। उनकी आंखें बोलती थीं। वो बॉलीवुड के उन चुनिंदा कलाकारों में से थे, जिन्होंने नेशनल अवार्ड से लेकर फिल्मफेयर तक, हर बड़ा सम्मान अपने नाम किया। उनकी विरासत सिर्फ उनकी फिल्मों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक सोच है – एक सोच जो कहती है कि कला किसी भी इमेज या स्टारडम से बड़ी होती है। आज भले ही वो हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनका काम, उनके किरदार और उनकी कला हमेशा जिंदा रहेगी और आने वाली पीढ़ियों को एक्टिंग का सही मतलब सिखाती रहेगी।